श्रीमद् भागवत महापुराण (स्कन्ध 4) | Shrimad Bhagavatam Hindi

हरे कृष्ण। इस पोस्ट में श्रीमद भागवत महापुराण के स्कन्ध 4 के सम्पूर्ण अर्थ संग्रह किया हुआ है। आशा है आप इसे पढ़के इसी जन्म में इस जन्म-मरण के चक्कर से ऊपर उठ जायेंगे और आपको भगवद प्राप्ति हो जाये। तो चलिए शुरू करते हैं – जय श्री राधा-कृष्ण

श्रीमद् भागवत महापुराण – स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति

अध्याय 1: मनु की पुत्रियों की वंशावली

श्लोक 1: श्रीमैत्रेय ने कहा : स्वायंभुव मनु की पत्नी शतरूपा से तीन कन्याएँ उत्पन्न हुईं जिनके नाम आकूति, देवहूति तथा प्रसूति थे।

श्लोक 2: आकूति के दो भाई थे तो भी राजा स्वायंभुव मनु ने इसे प्रजापति रुचि को इस शर्त पर ब्याहा था कि उससे, जो पुत्र उत्पन्न होगा वह मनु को पुत्र रूप में लौटा दिया जाएगा। उसने अपनी पत्नी शतरूपा के परामर्श से ऐसा किया था।

श्लोक 3: अपने ब्रह्मज्ञान में परम शक्तिशाली एवं जीवात्माओं के जनक के रूप में नियुक्त (प्रजापति) रुचि को उनकी पत्नी आकूति के गर्भ से एक पुत्र और एक पुत्री उत्पन्न हुए।

श्लोक 4: आकूति से उत्पन्न दोनों सन्तानों में से एक अर्थात् बालक तो प्रत्यक्ष पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का अवतार था और उसका नाम था यज्ञ, जो भगवान् विष्णु का ही दूसरा नाम है। बालिका सम्पत्ति की देवी भगवान् विष्णु की प्रिया शाश्वत लक्ष्मी की अंश अवतार थी।

श्लोक 5: स्वायंभुव मनु परम प्रसन्नतापूर्वक यज्ञ नामक सुन्दर बालक को अपने घर ले आये और उनके जामाता रुचि ने पुत्री दक्षिणा को अपने पास रखा।

श्लोक 6: यज्ञों के स्वामी भगवान् ने बाद में दक्षिणा के साथ विवाह कर लिया, जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्, को अपने पति रूप में प्राप्त करने के लिए परम इच्छुक थी। उनकी इस पत्नी से उन्हें बारह पुत्र प्राप्त हुए।

श्लोक 7: यज्ञ तथा दक्षिणा के बारह पुत्रों के नाम थे—तोष, प्रतोष, संतोष, भद्र, शान्ति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव तथा रोचन।

श्लोक 8: स्वायंभुव मनु के काल में ही ये सभी पुत्र देवता हो गये जिन्हें संयुक्त रूप में तुषित कहा जाता है। मरीचि सप्तर्षियों के प्रधान बन गये और यज्ञ देवताओं के राजा इन्द्र बन गये।

श्लोक 9: स्वायंभुव मनु के दोनों पुत्र, प्रियव्रत तथा उत्तानपाद अत्यन्त शक्तिशाली राजा हुए और उनके पुत्र तथा पौत्र उस काल में तीनों लोकों में फैल गये।

श्लोक 10: हे पुत्र, स्वायंभुव मनु ने अपनी परम प्रिय कन्या देवहूति को कर्दम मुनि को प्रदान किया। मैं इनके सम्बन्ध में तुम्हें पहले ही बता चुका हूँ और तुम उनके विषय में प्राय: पूरी तरह सुन चुके हो।

श्लोक 11: स्वायंभुव मनु ने प्रसूति नामक अपनी कन्या ब्रह्मा के पुत्र दक्ष को दे दी, जो प्रजापतियों में से एक थे। दक्ष के वंशज तीनों लोकों में फैले हुए हैं।

श्लोक 12: मैं तुम्हें कर्दम मुनि की नवों कन्याओं के विषय में पहले ही बतला चुका हूँ कि वे नौ विभिन्न ऋषियों को सौंप दी गई थीं। अब मैं इन नवों कन्याओं की सन्तानों का वर्णन करूँगा। तुम मुझसे उनके विषय में सुनो।

श्लोक 13: कर्दम मुनि की पुत्री कला का ब्याह मरीचि से हुआ जिससे दो सन्तानें हुईं जिनके नाम थे कश्यप तथा पूर्णिमा। इनकी सन्तानें सारे विश्व में फैल गईं।

श्लोक 14: हे विदुर, कश्यप तथा पूर्णिमा नामक दो सन्तानों में से पूर्णिमा के तीन सन्तानें उत्पन्न हुईं जिनके नाम विरज, विश्वग तथा देवकुल्या थे। इन तीनों में से देवकुल्या श्रीभगवान् के चरणकमल को धोने वाला जल थी, जो बाद में स्वर्गलोक की गंगा में बदल गई।

श्लोक 15: अत्रि मुनि की पत्नी अनसूया ने तीन सुप्रसिद्ध पुत्र उत्पन्न किये। ये हैं—सोम, दत्तात्रेय तथा दुर्वासा, जो भगवान् ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के अंशावतार थे। सोम ब्रह्मा के, दत्तात्रेय भगवान् विष्णु के तथा दुर्वासा शिवजी के अंश प्रतिनिधिस्वरूप थे।

श्लोक 16: यह सुनकर विदुर ने मैत्रेय से पूछा : हे गुरु, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जो सम्पूर्ण सृष्टि के स्रष्टा, पालक तथा संहारक हैं, अत्रि मुनि की पत्नी से किस प्रकार उत्पन्न हुए?

श्लोक 17: मैत्रेय ने कहा : अनसूया से विवाह कर लेने के बाद जब अत्रि मुनि को ब्रह्मा ने वंश चलाने के लिए आदेश दिया तो वे अपनी पत्नी के साथ कठोर तपस्या करने के लिए ऋक्ष नामक पर्वत की घाटी में गये।

श्लोक 18: उस पर्वत घाटी में निर्विन्ध्या नामक नदी बहती है। इस नदी के तट पर अनेक अशोक के वृक्ष तथा पलाश पुष्पों से लदे अन्य पौधे हैं। वहाँ झरने से बहते हुए जल की मधुर ध्वनि सुनाई पड़ती रहती है। वे पति तथा पत्नी ऐसे सुरम्य स्थान में पहुँचे।

श्लोक 19: वहाँ पर मुनि ने योगिक प्राणायाम के द्वारा अपने मन को स्थिर किया और फिर समस्त आसक्ति पर संयम करते हुए बिना भोजन खाए केवल वायु का सेवन करते रहे और सौ वर्षों तक एक पाँव पर खड़े रहे।

श्लोक 20: वे मन ही मन सोच रहे थे कि जो सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं और मैं जिनकी शरण में आया हूँ, वे प्रसन्न होकर मुझे अपने ही समान पुत्र प्रदान करें।

श्लोक 21: जब अत्रि मुनि गहन तप-साधना कर रहे थे तो उनके प्राणायाम के कारण उनके शिर से एक प्रज्ज्वलित अग्नि उत्पन्न हुई जिसे तीनों लोकों के तीन प्रमुख देवों ने देखा।

श्लोक 22: उस समय ये तीनों देव स्वर्गलोक के वासियों, यथा अप्सराओं, गन्धर्वों, सिद्धों, विद्याधरों तथा नागों समेत अत्रि के आश्रम पहुँचे। इस प्रकार वे उस मुनि के आश्रम में प्रविष्ट हुए, जो उनकी तपस्या के कारण विख्यात हो चुका था।

श्लोक 23: मुनि एक पैर पर खड़े थे, किन्तु उन्होंने ज्योंही देखा कि तीनों देव उनके समक्ष प्रकट हुए हैं, तो वे उन्हें देखकर इतने हर्षित हुए कि अत्यन्त कष्ट होते हुए भी वे एक ही पाँव से उनके निकट पहुँचे।

श्लोक 24: तत्पश्चात् उन्होंने उन तीनों देवों की स्तुति की जो अपने-अपने वाहनों—बैल, हंस तथा गरुड़—पर सवार थे, और अपने हाथों में डमरू, कुश तथा चक्र धारण किये थे। मुनि ने भूमि पर गिरकर उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया।

श्लोक 25: अत्रि मुनि यह देखकर अत्यधिक प्रमुदित हुए कि तीनों देव उन पर कृपालु हैं। उनके नेत्र उन देवों के शरीर के तेज से चकाचौंध हो गये, अत: उन्होंने कुछ समय के लिए अपनी आँखें मूँद लीं।

श्लोक 26-27: किन्तु पहले से उनका हृदय इन देवों के प्रति आकृष्ट था, अत: जिस-तिस प्रकार उन्होंने होश सँभाला और वे हाथ जोड़ कर ब्रह्माण्ड के प्रमुख अधिष्ठाता देवों की मधुर शब्दों से स्तुति करने लगे। अत्रि मुनि ने कहा : हे ब्रह्मा, हे विष्णु तथा हे शिव, आपने भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों को अंगीकार करके अपने को तीन शरीरों में विभक्त कर लिया है, जैसा कि आप प्रत्येक कल्प में दृश्य जगत की उत्पत्ति, पालन तथा संहार के लिए करते आये हैं। मैं आप तीनों को सादर नमस्कार करता हूँ और मैं जानना चाहता हूँ कि मैने अपनी प्रार्थना में आपमें से किसको बुलाया था?

श्लोक 28: मैंने तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के ही समान पुत्र की इच्छा से उन्हीं का आवाहन किया था और मैंने उन्हीं का चिन्तन किया था। यद्यपि वे मनुष्य की मानसिक कल्पना से परे हैं, किन्तु आप तीनों यहाँ पर उपस्थित हुए हैं। कृपया मुझे बताएँ कि आप यहाँ कैसे आए हैं, क्योंकि मैं इसके विषय में अत्यधिक मोहग्रस्त हूँ।

श्लोक 29: मैत्रेय महा-मुनि ने कहा : अत्रि मुनि को इस प्रकार बोलते हुए सुनकर तीनों महान् देव मुस्कराए और उन्होंने मृदु वाणी में इस प्रकार उत्तर दिया।

श्लोक 30: तीनों देवताओं ने अत्रि मुनि से कहा : हे ब्राह्मण, तुम अपने संकल्प में पूर्ण हो, अत: तुमने जो कुछ निश्चित कर रखा है, वही होगा, उससे विपरीत नहीं होगा। हम सब वे ही पुरुष हैं जिनका तुमने ध्यान किया है और इसीलिए हम सब तुम्हारे पास आये हैं।

श्लोक 31: हे मुनिवर, हमारी शक्ति के अंशस्वरूप तुम्हारे पुत्र उत्पन्न होंगे और हम तुम्हारे कल्याण के कामी हैं, अत: वे पुत्र तुम्हारे यश का संसार-भर में विस्तार करेंगे।

श्लोक 32: इस प्रकार उस युगल के देखते ही देखते तीनों देवता ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर अत्रि मुनि को वर देकर उस स्थान से ओझल हो गये।

श्लोक 33: तत्पश्चात् ब्रह्मा के आंशिक विस्तार से सोमदेव उत्पन्न हुए, विष्णु से परम योगी दत्तात्रेय तथा शंकर (शिवजी) से दुर्वासा उत्पन्न हुए। अब तुम मुझसे अंगिरा के अनेक पुत्रों के सम्बन्ध में सुनो।

श्लोक 34: अंगिरा की पत्नी श्रद्धा ने चार कन्याओं को जन्म दिया जिनके नाम सिनीवाली, कुहू, राका तथा अनुमति थे।

श्लोक 35: इन चार पुत्रियों के अतिरिक्त उसके दो पुत्र भी थे। उनमें से एक उतथ्य कहलाया और दूसरा महान् विद्वान बृहस्पति था।

श्लोक 36: पुलस्त्य के उनकी पत्नी हविर्भू से अगस्त्य नाम का एक पुत्र हुआ, जो अपने अगले जन्म में दह्नाग्नि बना। इसके अतिरिक्त पुलस्त्य के एक अन्य महान् तथा साधु पुत्र हुआ जिसका नाम विश्रवा था।

श्लोक 37: विश्रवा के दो पत्नियाँ थीं। प्रथम पत्नी इडविडा थी जिससे समस्त यक्षों का स्वामी कुबेर उत्पन्न हुआ। दूसरी पत्नी का नाम केशिनी था जिससे तीन पुत्र उत्पन्न हुए। ये थे—रावण, कुम्भकर्ण तथा विभीषण।

श्लोक 38: पुलह ऋषि की पत्नी गति ने तीन पुत्रों को जन्म दिया, जिनके नाम थे—कर्मश्रेष्ठ, वरीयान तथा सहिष्णु। ये सभी महान् साधु थे।

श्लोक 39: क्रतु की पत्नी क्रिया ने वालखिल्यादि नामक साठ हजार ऋषियों को जन्म दिया। ये ऋषि ब्रह्म (आध्यात्मिक) ज्ञान में बढ़े-चढ़े थे और उनका शरीर ऐसे ज्ञान से देदीप्यमान था।

श्लोक 40: वसिष्ठ मुनि की पत्नी ऊर्जा से, जिसे कभी-कभी अरुन्धती भी कहा जाता है, चित्रकेतु इत्यादि सात विशुद्ध ऋषि उत्पन्न हुए।

श्लोक 41: इन सातों ऋषियों के नाम इस प्रकार हैं—चित्रकेतु, सुरोचि, विरजा, मित्र, उल्बण, वसुभृद्यान तथा द्युमान। वसिष्ठ की दूसरी पत्नी से कुछ अन्य अत्यन्त सुयोग्य पुत्र हुए।

श्लोक 42: अथर्वा मुनि की पत्नी चित्ति ने अश्वशिरा नामक पुत्र को जन्म दिया, जो व्रतधारी होने के कारण दध्यञ्च कहलाया। अब तुम मुझसे भृगुमुनि के वंश के विषय में सुनो।

श्लोक 43: भृगु मुनि अत्यधिक भाग्यशाली थे। उन्हें अपनी पत्नी ख्याति से दो पुत्र, धाता तथा विधाता और एक पुत्री, श्री, प्राप्त हुई; वह श्रीभगवान् के प्रति अत्यधिक परायण थी।

श्लोक 44: मेरु ऋषि के दो पुत्रियाँ थीं जिनके नाम आयति तथा नियति थे जिन्हें उन्होंने धाता तथा विधाता को दान दे दिया। आयति तथा नियति से मृकण्ड तथा प्राण नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए।

श्लोक 45: मृकण्ड से मार्कण्डेय मुनि और प्राण से वेदशिरा ऋषि उत्पन्न हुए। वेदशिरा का पुत्र उशना (शुक्राचार्य) था, जो कवि भी कहलाता है। इस प्रकार कवि भी भृगुवंशी था।

श्लोक 46-47: हे विदुर, इस प्रकार इन मुनियों तथा कर्दम की पुत्रियों की सन्तानों से विश्व की जनसंख्या बढ़ी। जो कोई श्रद्धापूर्वक इस वंश के आख्यान को सुनता है, वह समस्त पाप-बन्धनों से छूट जाता है। मनु की अन्य कन्याओं में से प्रसूति ने ब्रह्मा के पुत्र दक्ष से विवाह किया।

श्लोक 48: दक्ष ने अपनी पत्नी प्रसूति से सोलह कमलनयनी सुन्दरी कन्याएँ उत्पन्न कीं। इन सोलह कन्याओं में से तेरह धर्म को और एक अग्नि को पत्नी रूप में प्रदान की गईं।

श्लोक 49-52: शेष दो कन्याओं में से एक पितृलोक को दान दे दी गई, जहाँ वह प्रेमपूर्वक रह रही है और दूसरी कन्या भवबंधन से समस्त पापियों के उद्धारक शिवजी को दी गई। दक्ष ने धर्म को जिन तेरह कन्याओं को दिया उनके नाम थे : श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, ह्री तथा मूर्ति। इन तेरहों ने पुत्रों को जन्म दिया, जो इस प्रकार हैं—श्रद्धा ने शुभ, मैत्री ने प्रसाद, दया ने अभय, शान्ति ने सुख, तुष्टि ने मुद, पुष्टि ने स्मय, क्रिया ने योग, उन्नति ने दर्प, बुद्धि ने अर्थ, मेधा ने स्मृति, तितिक्षा ने क्षेम तथा ह्नी ने प्रश्रय को जन्म दिया। समस्त गुणों की खान मूर्ति ने नर-नारायण को जन्म दिया, जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं।

श्लोक 53: नर-नारायण के जन्म के अवसर पर समस्त विश्व आनन्दित था। प्रत्येक का मन शान्त था और इस प्रकार समस्त दिशाओं में वायु, नदियाँ तथा पर्वत मनोहर लगने लगे।

श्लोक 54-55: स्वर्गलोक में बाजे बजने लगे और आकाश से पुष्प बरसने लगे। प्रसन्न मुनि वैदिक स्तुतियों का उच्चारण करने लगे। गंधर्व तथा किन्नर लोक के वासी गाने लगे और स्वर्ग की अप्सराएँ नाचने लगीं। इस प्रकार नर-नारायण के जन्म के समय सभी मंगलसूचक चिह्न दिखाई पडऩे लगे। उसी समय ब्रह्मादि महान् देवों ने भी सादर स्तुतियाँ अर्पित कीं।

श्लोक 56: देवताओं ने कहा : हम उस दिव्य रूप भगवान् को नमस्कार करते हैं जिन्होंने इस दृश्य जगत की सृष्टि अपनी बहिरंगा शक्ति के रूप में की है, जो उनमें उसी प्रकार स्थित है, जिस प्रकार वायु तथा बादल आकाश में रहते हैं और जो अब धर्म के घर में नर-नारायण ऋषि के रूप में प्रकट हुए हैं।

श्लोक 57: वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्, जो वास्तविक रूप से प्रामाणिक वैदिक साहित्य द्वारा जाने जाते हैं और जिन्होंने सृष्ट जगत की समस्त विपत्तियों को विनष्ट करने के लिए शान्ति तथा समृद्धि का सृजन किया है, हम देवताओं पर कृपापूर्ण दृष्टिपात करें। उनकी कृपापूर्ण चितवन लक्ष्मी के आसन निर्मल कमल की शोभा को मात करने वाली है।

श्लोक 58: [मैत्रेय ने कहा :] हे विदुर, इस प्रकार देवताओं ने नर-नारायण मुनि के रूप में प्रकट श्रीभगवान् की पूजा की। भगवान् ने उन पर कृपा-दृष्टि डाली और फिर गन्धमादन पर्वत की ओर चले गये।

श्लोक 59: नर-नारायण ऋषि कृष्ण के अंश विस्तार हैं और अब जगत का भार उतारने के लिए यदु तथा कुरु वंशों में क्रमश: कृष्ण तथा अर्जुन के रूप में प्रकट हुए हैं।

श्लोक 60: अग्निदेव की पत्नी स्वाहा से तीन संताने उत्पन्न हुई जिनके नाम पावक, पवमान तथा शुचि हैं, जो यज्ञ की अग्नि में डाली गई आहुतियों को खाने वाले हैं।

श्लोक 61: इन तीनों पुत्रों से अन्य पैंतालीस सन्तानें उत्पन्न हुईं और वे भी अग्निदेव हैं। अत: अग्निदेवों की कुल संख्या उनके पिताओं तथा पितामह को मिलाकर उञ्चास है।

श्लोक 62: ब्रह्मवादी ब्राह्मणों द्वारा वैदिक यज्ञों में दी गई आहुतियों के भोक्ता ये ही उञ्चास अग्निदेव हैं।

श्लोक 63: अग्निष्वात्त, बर्हिषद्, सौम्य तथा आज्यप—ये पितर हैं। वे या तो साग्निक हैं अथवा निरग्निक। इन समस्त पितरों की पत्नी स्वधा है, जो राजा दक्ष की पुत्री है।

श्लोक 64: पितरों को प्रदत्त स्वधा ने वयुना तथा धारिणी नामक दो पुत्रियों को जन्म दिया। वे दोनों ही ब्रह्मवादिनी थीं तथा दिव्य एवं वैदिक ज्ञान में पारंगत थीं।

श्लोक 65: सती नामक सोलहवीं कन्या भगवान् शिव की पत्नी थीं, किन्तु उनके कोई सन्तान उत्पन्न नहीं हुई, यद्यपि वे सदैव अपने पति की अत्यन्त श्रद्धापूर्वक सेवा में संलग्न रहने वाली थीं।

श्लोक 66: इसका कारण यह है कि सती के पिता दक्ष शिवजी के दोषरहित होने पर भी उनकी भर्त्सना करते रहते थे। फलत: परिपक्व आयु के पूर्व ही सती ने अपने शरीर को योगशक्ति से त्याग दिया था।

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